8 September 2014


                                                                          जानिए कैसे होती थी गुरुकुल में

पढ़ाई, कितने सख्त थे नियम

गुरुकुल जाने की उम्र

आमतौर पर 5 साल की उम्र से बच्चे
की शिक्षा आरंभ होती थी। उस
काल में वर्ण व्यवस्था के अनुसार
शिक्षा दी जाती थी। इस कारण
हर वर्ण के लिए अलग-अलग आयु सीमा तय
थी। ब्राह्मण बालक के लिए 8 वर्ष, क्षत्रिय के लिए 11
और वैश्य के लिए 12 वर्ष की आयु तय थी।
इस आयु का होते ही बालक का यज्ञोपवित संस्कार
कराकर उसे गुरुकुल भेज दिया जाता था।

नहीं मिलती थी छुट्ट

एक बार गुरुकुल में प्रवेश लेने के बाद 12 साल
विद्यार्थी को वहीं रहना होता था। इस
दौरान परिवार से मिलने का कोई प्रावधान नहीं था। बहुत
ही संवेदनशील मामलों में विद्यार्थियों को पढ़ाई
खत्म किए बगैर घर जाने
की अनुमति मिलती थी।
विद्यार्थी की दिनचर्या पहले प्रहर
यानी सुबह 3 से 4 बजे के बीच शुरू
होती थी, जो शाम को सूर्यास्त तक
रहती थी।

करने पड़ते थे आश्रम के काम

विद्यार्थियों को पढ़ाई के साथ ही आश्रम के काम
भी करने पड़ते थे, जिसमें भोजन संबंधी व्यवस्था,
सफाई, पशुओं की देखरेख, अतिथियों की सेवा, गुरु
की सेवा, बीमार
साथियों की सेवा तथा कभी-
कभी राजकीय कार्य भी करने पड़ते
थे। कई आश्रमों में ये
व्यवस्था भी होती थी कि विद्यार्
भोजन का इंतजाम स्वयं करते थे। साथ ही गुरु और उनके
परिवार का भी पोषण करते थे।
इसके लिए विद्यार्थी आश्रम के पास के नगरों में भिक्षा मांगने
जाते थे, लेकिन एक विद्यार्थी को सिर्फ  पांच घरों से
ही भिक्षा मांगने का अधिकार था। उन पांच घरों में से
जितना अन्न मिल जाए उतने में ही उसे
गुजारा करना होता था। भिक्षा में मिलने
वाली सामग्री वो गुरु को लाकर देता और गुरु उसमें
से अपना भाग निकाल लेते थे।

दो श्रेणी के होते थे गुरु

कुछ ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि प्राचीन काल में गुरुओं
की भी दो श्रेणियां होती थ
एक आचार्य और दूसरे उपाध्याय। आचार्यों का मूल काम
शिक्षा देना तो होता था, लेकिन वे अपने भरण-पोषण के लिए शिक्षा पर
आश्रित नहीं होते थे। वे यज्ञ कर्म, राज सेवा आदि से
भी धन अर्जित करते थे, लेकिन उपाध्याय वे शिक्षक कहे
जाते थे जिनकी जीविका का मुख्य साधन
शिक्षा ही था। वे तय राशि के साथ शिक्षण कार्य करते थे
और आचार्य विद्यार्थी की क्षमता अनुरूप उससे
गुरु दक्षिणा लेते थे।

बिना लिखाएं करवाते थे याद

वेद मंत्रों को गुरु अपनी अनुभूति,
उसकी व्याख्या और प्रयोग को शिष्य को बताते थे। गुरु के
उपदेश पर चलते हुए वेद मंत्र कंठस्थ किए जाते थे। आचार्य स्वर से
मंत्रों का परायण करते और
ब्रह्मचारी उनको उसी प्रकार दोहराते चले
जाते थे। उस काल में लेखन कर्म नहीं किया जाता था।
सारा ज्ञान विद्यार्थी को कंठस्थ कराया जाता था। इसके बाद अर्थ
बोध कराया जाता था। ब्रह्मचर्य का पालन सभी विद्यार्थियों के
लिए अनिवार्य था। यज्ञ
विधियों की शिक्षा दी जाती थ
वेद शिक्षा, व्याकरण, छंद (काव्य शैली), ज्योतिष उनके पाठ
होते थे। गुरुकुल में 12 वर्ष अध्ययन करने के बाद
विद्यार्थी स्नातक कहलाते थे।

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